हमारी संस्कृति हमें जोड़ कर एक करती है। उस एकता में छुपी अनेकता और ख़ुशी की झलक हमें विश्व की हर संस्कृति में देखने को मिलती है
हम सब एक ही संस्कृति के विविध रूप हैं; सब एक दूसरे से अलग होने पर भी अपने आप में अद्भुत और अनोखे हैं। यदि गहराई में जा कर देखें तो पाएँगे कि हर वस्तु का मूल स्वरूप एक ही है। मानव सभ्यता पर नज़र डालें तो हर जगह विविधता ही पाएँगे। हमारा रूप-रंग, वेश-भूषा, खान-पान, त्योहार-पर्व सब अलग हैं। यहां तक कि कला क्षेत्र में भी गीत-संगीत, नृत्य इत्यादि में भी बहुत भिन्नता है। एक संस्कृति दूसरी से अलग, लेकिन अपने आप में विशिष्ट और अद्भुत है। हमारी संस्कृति हमें जोड़ कर एक करती है। उस एकता में छुपी अनेकता और ख़ुशी की झलक हमें विश्व की हर संस्कृति में देखने को मिलती है। जब भी हम कोई सांस्कृतिक पर्व मनाते हैं तो, वह हर समुदाय की समानता में विभिन्नता की ही अभिव्यक्ति होती है। संस्कृति विश्व के विभिन्न लोगों और राष्ट्रों को एक सूत्र में पिरोने का काम करती है और हमारी जड़ों को मजबूत कर उस बंधन को और गहरा करती है। एक में सबको देखना एवं सब में एक को देखना, यही महामंत्र हमें अपने मूल स्त्रोत को जोड़ने में सहायक है।
गत 11, 12 एवं 13 मार्च को आयोजित विश्व सांस्कृतिक महोत्सव 2016 का भव्य आयोजन करने वाले आर्ट ऑफ लिविंग संगठन की स्थापना सन 1981 में श्री श्री रवि शंकर जी के द्वारा की गई। यह संगठन आध्यात्मिक, शैक्षिक और मानवीय मूल्यों के विकास कार्यों में रत हैं। इसके अनेक कार्यक्रम- तनाव को मिटाने और प्रसन्नता उत्पन्न करने के साधन प्रदान करते हैं। 35 वर्षों के अल्पकाल में यह संगठन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 155 देशों में सक्रिय रूप से सेवा कार्य कर रहा है। आर्ट ऑफ लिविंग के कार्यक्रमों ने लाखों लोगों के जीवन को छुआ है। श्री श्री के मार्गदर्शन में मानवतावादी कार्यक्रमों के माध्यम से आर्ट ऑफ लिविंग विभिन्न समुदायों में शांति स्थापना के प्रयासों में रत है। इसमें द्वन्द समाधान, प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित लोगों की सहायता, चिरस्थायी ग्रामीण विकास, महिला सशक्तिकरण, कैदियों का पुनरुद्धार, सब के लिए शिक्षा और पर्यावरण के दीर्घकालिक विकास जैसे कार्यक्रम शामिल हैं।
श्री श्री रविशंकर जी का कहना है कि "जब तक हमारा मन तनाव रहित और समाज हिंसा मुक्त नहीं होता तब तक विश्व में शांति की स्थापना नहीं हो सकती"। आर्ट ऑफ लिविंग तनाव को दूर करने वाले कार्यक्रम आयोजित करता है जिनमें सांस की क्रियाएँ ,ध्यान और योग शामिल हैं। इन कार्यकमों में सिखाई जाने वाली यौगिक एवं प्राणायाम की क्रियाएं मनुष्य को अपने स्वंय से जोड़कर अपार आनंद एवं शान्ति का अनुभव करती है। जिससे स्वतः ही हमारे आसपास का वातावरण सकारात्मक हो जाता है।
वसुधैव कुटुम्बकम् (विश्व एक परिवार), इस प्राचीन मूल्य की पुनर्स्थापना बेंगलुरु शहर में फ़रवरी 2006 में हुई। पूरी दुनिया में एक लहर उठी, जब आर्ट ऑफ लिविंग की 25 साल पूर्ण होने पर आयोजित समारोह में 25 लाख लोग शामिल हुए। एक पुरानी हवाई पट्टी से लगभग 3800 भारतीय शास्त्रीय संगीतकारों द्वारा रची संगीत रचना स्नेह, ख़ुशी और शांति की प्रतिध्वनि बनी। इसने जाति ,पंथ ,रंग ,राष्ट्रीयता ,धर्म, जैसी मानव निर्मित बाधाओं को भी तोड़ दिया।
भारत इतनी विविधताओं से भरा हुआ है, विश्व को देने के लिए भारत के पास क्या कुछ नहीं है। दुनिया सिर्फ आर्थिक हितों से ही जुड़ी हुई है ऐसा नहीं है, दुनिया मानवीय मूल्यों से भी जुड़ सकती है और जोड़ा जा सकता है और जोड़ना चाहिए भी।
भारत के पास वो सांस्कृतिक विरासत है, वो सांस्कृतिक अधिष्ठान है जिसकी तलाश दुनिया को है। हम दुनिया की उन आवश्यकताओं को कुछ न कुछ मात्रा में, किसी न किसी रूप में परिपूर्ण कर सकते है। लेकिन ये तब हो सकता है जब हमें हमारी इस महान विरासत पर गर्व हो, अभिमान हो।
अगर हम ही अपने आप को कोसते रहेंगे, हमारी हर चीज को नकारात्मक दृष्टि से देखते रहेगे तो दुनिया हमारी ओर क्यों देखेगी?
मैंने दिल्ली में यमुना मय्या के तट पर आयोजित मानवता के एक ऐसे कुंभ मेले का दर्शन किया जहाँ यूरोप से अमेरिका तक लगभग सभी देशों के हजारों लाखों आध्यात्मिक, राजनितिक एवं सांस्कृतिक नामचीन हस्तियों ने शिरकत की| इस कार्यक्रम की शुरुआत से ही कुछ लोग यमुना की आड़ लेकर कार्यक्रम के स्थल चयन को लेकर तरह तरह की बयानबाजी करते रहे, जिनका दूर दूर तक भी पर्यावरण, प्रदुषण से नाता नहीं| इस समारोह को प्रकृति ने भी अपनी कसौटी पर कसा, लेकिन यही तो आर्ट ऑफ लिविंग है।
सुविधा और सरलता के बीच जीने के लिए जी सकते हैं, मगर उसमें आर्ट नहीं होती है। जब अपने इरादे को लेकर चलते है, तब आर्ट ऑफ लिविंग चाहिए। जब अपने सपनों को लेकर चलते है, तब आर्ट ऑफ लिविंग चाहिए। जब संकटों से जूझते हैं, तब आर्ट ऑफ लिविंग चाहिए। जब अपने लिए नहीं औरों के लिए जीते हैं, तब आर्ट ऑफ लिविंग चाहिए। जब स्व से समष्टि की यात्रा करते हैं, तब आर्ट ऑफ लिविंग चाहिए। जब मैं से छूटकर, हम की ओर चलते हैं, तब आर्ट ऑफ लिविंग चाहिए। अहम् ब्रह्मास्मि से शुरू होकर वसुधैव कुटुम्बकम की यात्रा, यही जीवन जीने की कला है।
मेरी नज़र में यह कार्यक्रम विश्व के इतिहास में एक अनूठा आयोजन था| जो आने वाली पीढ़ियों को प्रदुषण व भृष्टाचार मुक्त वातावरण, आपसी प्रेम और सेवाभावना के प्रेरणा प्रदान करेगा।
-डा.बी.एस.जिंदल.
Mail us at : gajraulatimes@gmail.com